आज कल मुंबई में खुदकुशी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है...पिछले दो सप्ताह में दो दर्जन से ज़्यादा लोगों ने खुदकुशी का रास्ता चुन लिया। यह सब क्यूं हो रहा है...इसका आसान सा जवाब सरकार के पास भी नहीं है...वो तो भला हो मीडिया वालों का जिनके चलते पुणे और मुंबई के आत्महत्या की ख़बरें आसानी से देश भर में फैल गई और शासन से लेकर समाज तक चिंता में है। आखिरकार खुद के जीवन को समाप्त कर लेने का फ़ैसला लेने कि नौबत क्यूं आ रही है...?
इसे रोकने के लिए लोगों ने सुझाया कि...
स्कूल बैग को हल्का कर दो।
परीक्षा के परिणाम का पैटर्न बदल दो।
स्कूल से ले कर घर तक बच्चे को किसी भी ग़लती के लिए दण्डित नहीं किया जाए....
वगैरह...वगैरह...
सारी दवाईयां मर्ज़ को ख़त्म करने के बजाए घाव को नासूर बनाने वाली थी वो हुआ और आज नतीजा हमारे सामने है...।
किसी ने भी जीवन पद्धती की ओर लौटने की बात नहीं की जो कि सारि समस्याओं के समाधान का एक मात्र दवा थी। दरअसल आज व्यवसायिकता के इस दौर में अभिभावक इतने व्यस्त रहने लगे हैं कि, बच्चे इस छोटी सी उम्र में ही खुद को अकेला समझने लगे हैं। घर में रह कर भी छोटी उम्र से हि बच्चा वानप्रस्थ जीवन जी रहा होता है। छोटी-छोटी बातें भी उसे घूंट घूंट कर मार रही होती है।
आज से चार साल पहले मैं अपने शहर के एक व्यवसायी से मिला था...संपर्क बढ़ने के कारण कुछ काम वस उनके घर पर सुबह आठ बजे पहुंचा...उस समय उन्होने मुझसे ज्यादा बातें नहीं कि लेकिन बहुत खास बात उन्होनें अपने दिनचर्या से जुड़ी हुई बताई...जिसका उल्लेख मैं आज के दौर में उचित समझता हूं।
सुबह के आठ बजे वह अपने चार साल के बच्चे को स्कूल ले जाने के लिए तैयार हो रहे थे...मैने पूछा कि बच्चे को आप खुद ही स्कूल छोड़ते हैं! मेरे पूछने का भाव आश्चर्यजनक था यह देख कर वो अपनी मज़बूरी मेरे सामने रखने लगे...उन्होंने कहा कि जिस रोज से अपने बच्चे का दाखिला स्कूल में कराया हूं तब से लागातर दो माह तक जब अपने बच्चे को मैं देख नहीं पाया तब मैने यह निर्णय लिया कि स्कूल छोड़ने खुद जाया करूंगा। दरअसल उनका बच्चा स्कूल वैन से सुबह आठ बजे स्कूल चला जाया करता था और दोपहर को दो बजे वापस घर आ जाया करता था।
और वो खुद सुबह के नौ बजे से रात के दस बजे तक व्यवसायगत समस्याओं में उलझे होने के चलते घर से बाहर रहते थे। रात को जब खुद घर आया तब पता चला कि बच्चे सो गए हैं और जब खुद सुबह सो के जगे तब पता चला कि बच्चा स्कूल चला गया है। यह दिनचर्या अभिभावकों को बच्चों से कोसों दूर कर देती है और एक घर में रह कर भी अभिभावक दोस्त के बतौर भी अपने बच्चे से नहीं मिल पाता है...उधर स्कूल में भी गुरू शिष्य परंपरा जैसी कोई बात अब बची नहीं, लिहाजा बच्चा घर से बाहर तक अकेलापन झेल रहा होता है। छोटी सी असफलता भी उसे तोड़ देती है। छोटी-मोटी बातें भी घूंटन देती है। वो क्या करे? पश्चिम की ओर देखने की आदत आज ज़िदगी पर भारी पड़ रही है। पाश्चात्य जीवनशैली के चक्कर में पड़ कर आज लोग खुद के लाईफ स्टाईल को इतना ज्यादा उन्नत बनाने में लगे हैं कि घर-परिवार, बाल-बच्चे सब द्वितीयक हो गए हैं। जो बचपन सूनी गलियों में बीता फिर उस जवानी को संवार पाना और कठीन हो जाता है लिहाजा नौजवान भी जिंदगी को ज़मीन का बोझ समझने लगाता है। इसलिए ज़रूरी है जीवन पद्धती को बदलने की। व्यक्ति में खुद के प्रति विश्वास भरने वाली जीवन पद्धती हमारी खुद की जीवन पद्धती थी...और उधार में हमने जो जीवन पद्धती लिए हैं उसमें ये सारि समस्याएं आती ही रहेंगी।