बुधवार, 22 अप्रैल 2009

महापर्व का रूतबा कायम रहे.

पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव ने हमारे सारे पर्व तैयोहरों को तो प्रभावित किया ही है, क्या लोकतंत्र के महापर्व को भी पश्चिम की ही हवा लग गई है? ज्ञात हो की हमारे कुछ पर्व को हमने भुलाया है, नतीजा सामने है। परिवार टूट रहा है संस्कृति पर खतरा है इससे इंकार नही किया जा सकता। क्या अन्य पर्वो के तरह लोकतंत्र के महापर्व को भी भुला के हम लोकतंत्र को कमजोर करने की बात नही कर रहे हैं? ठीक है की हमारे प्रेम पर्व की जगह हमने वैलेंटाइन डे को अपनाना बड़े पैमाने पर शुरू किया है उसके परिणाम बुरे ही दिख रहे हैं पर एक पर्व को भूल के दूसरा तो अपना लेते हैं.. यहाँ चलेगा। काश लोकतंत्र कमजोर पड़ा तो इसके महापर्व का न मनाया जाना किस विकल्प को लेके आएगा वह कल्पना डरावना है।
आज जिस लोकतंत्र के लिए हमारे पड़ोसी लालायित हैं वहीँ हमारी इसलिए वैश्विक छवि है क्यों की हम विश्व के बड़े लोकतंत्र के रूप में जाने जाते हैं। ऐसे में हमारे पास वोट करने का वक्त नही रहता है।यह आत्म मंथन का सवाल है, वोट न करके हम देश को किस ओर ले जा रहे हैं? चिंता की बात तो यह है की पढ़े लिखे लोग ही ज्यादा दूर रह जाते हैं मतदान केन्द्र से। यह चिंता नही चिंतन की वेला है, अपना निर्णय खुद ले लेकिन वोट जरूर दे।

2 टिप्‍पणियां:

him ने कहा…

sahi keh rahe ho bhai .... hamara yuva aaj dusron ki kismat badalne ke liye rodies jaise ghatiya show ke liye vote karta hai lekin khud apni kismat badalne ke liye desh ke liye vote nahi daalta.....

संगीता पुरी ने कहा…

वोट तो करना ही चाहिए ..